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आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। प्र॒जाप॑तेः प्र॒जाऽअ॑भूम॒ स्व᳖र्देवाऽअगन्मा॒मृता॑ऽअभूम ॥२१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒भू॒म॒। स्वः॑। दे॒वाः॒। अ॒ग॒न्म॒। अ॒मृताः॑। अ॒भू॒म॒ ॥२१॥

यजुर्वेद » अध्याय:9» मन्त्र:21


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम्हारी (आयुः) अवस्था (यज्ञेन) ईश्वर की आज्ञा पालन से निरन्तर (कल्पताम्) समर्थ होवे (प्राणः) जीवन का हेतु बलकारी प्राण (यज्ञेन) धर्मयुक्त विद्याभ्यास से (कल्पताम्) समर्थ होवे (चक्षुः) नेत्र (यज्ञेन) प्रत्यक्ष के विषय शिष्टाचार से (कल्पताम्) समर्थ हो (श्रोत्रम्) कान (यज्ञेन) वेदाभ्यास से (कल्पताम्) समर्थ हो और (पृष्ठम्) पूछना (यज्ञेन) संवाद से (कल्पताम्) समर्थ हो, (यज्ञः) यज धातु का अर्थ (यज्ञेन) ब्रह्मचर्यादि के आचरण से (कल्पताम्) समर्थित हो, जैसे हम लोग (प्रजापतेः) सब के पालनेहारे ईश्वर के समान धर्मात्मा राजा के (प्रजाः) पालने योग्य सन्तानों के सदृश (अभूम) होवें तथा (देवाः) विद्वान् हुए (अमृताः) जीवन-मरण से छूटे (अभूम) हों (स्वः) मोक्षसुख को (अगन्म) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें ॥२१॥
भावार्थभाषाः - मैं ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता हूँ कि तुम लोग मेरे तुल्य धर्मयुक्त गुण, कर्म और स्वभाववाले पुरुष ही की प्रजा होओ, अन्य किसी मूर्ख, क्षुद्राशय पुरुष की प्रजा होना स्वीकार कभी मत करो। जैसे मुझ को न्यायधीश मान मेरी आज्ञा में वर्त और अपना सब कुछ धर्म के साथ संयुक्त करके इस लोक और परलोक के सुख को नित्य प्राप्त होते रहो, वैसे जो पुरुष धर्मयुक्त न्याय से तुम्हारा निरन्तर पालन करे, उसी को सभापति राजा मानो ॥२१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यान् प्रतीश्वर आहेत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(आयुः) जीवनम् (यज्ञेन) धर्म्येणेश्वराज्ञापालनेन (कल्पताम्) समर्थताम् (प्राणः) जीवनहेतुर्बलकारी (यज्ञेन) धर्म्येण विद्याभ्यासेन (कल्पताम्) (चक्षुः) चष्टेऽनेन तत् (यज्ञेन) शिष्टाचरितेन प्रत्यक्षविषयेण (कल्पताम्) (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (यज्ञेन) शब्दप्रमाणाभ्यासेन (कल्पताम्) (पृष्ठम्) प्रच्छन्नम् (यज्ञेन) संवादाख्येन (कल्पताम्) (यज्ञः) यजधातोरर्थः (यज्ञेन) ब्रह्मचर्याद्याचरणेन (कल्पताम्) (प्रजापतेः) विश्वम्भरस्य जगदीश्वरस्येव धार्मिकस्य राज्ञः (प्रजाः) तदधीनपालनाः (अभूम) भवेम (स्वः) सुखम् (देवाः) विद्वांसः (अगन्म) प्राप्नुयाम (अमृताः) प्राप्तमोक्षसुखाः (अभूम) भवेम। अयं मन्त्रः (शत०५.२.१.४) व्याख्यातः ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! युष्माकमायुः सततं यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, श्रोत्रं यज्ञेन कल्पताम्, पृष्ठं यज्ञेन कल्पताम्, यथा वयं प्रजापतेः प्रजा अभूम, देवाः सन्तोऽमृता अभूम स्वरगन्मेति तथा यूयं निश्चिनुत ॥२१॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरः सर्वान् मनुष्यानिदमाज्ञापयति यूयं मत्सदृशस्य सत्यगुणकर्म्मस्वभावस्यैव प्रजा भवतेतरस्य क्षुद्राऽऽशयस्य च कदाचित् प्रजाभावं मा स्वीकुरुत। यथा मां न्यायाधीशं मत्वा मदाज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वं स्वं धर्मेण सहचरितं कृत्वाऽऽभ्युदयिकनिश्श्रेयसे सुखे नित्यं प्राप्नुतः, तथा यो हि धर्मेण न्यायेन युष्मान् निरन्तरं पालयेत् तं च सभेशं राजानं मन्यध्वम् ॥२१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - मी ईश्वर सर्व माणसांना अशी आज्ञा देतो की तुम्ही माझ्याप्रमाणे धर्मयुक्त गुण, कर्म, स्वभावाच्या पुरुषाची प्रजा बना, अन्य कुणा क्षुद्र पुरुषाची प्रजा बनण्यास तयार होऊ नका. मला न्यायाधीश मानून माझ्या आज्ञेत राहा. धर्म हे सर्वस्व मानून नेहमी इहलोक व परलोकाचे सुख प्राप्त करा. जो पुरुष धर्मयुक्त न्यायाने तुमचे निरन्तर पालन करील त्याला राजा माना.